Thursday 28 December 2017

श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन

एनडीए सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन 

पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (नवम्बर 2017)
(हिन्दी अनुवाद – प्रबल अगरवाल)

एनडीए सरकार द्वारा ‘मेक इन इण्डिया’, ‘स्किल इण्डिया’, ‘डिजिटल इण्डिया’ और ‘व्यापार की सहूलियत’ जैसे कार्यक्रमों का डंका बजाते हुए श्रम क़ानूनों में संशोधन किये जा रहे हैं। श्रम मन्त्रालय द्वारा 43 श्रम क़ानूनों को 4 बड़े क़ानूनों में समेकित किया जा रहा है। इसी कड़ी में 10 अगस्त 2017 को लोक सभा में ‘कोड ऑफ़ वेजिस बिल, 2017’ पेश किया गया। प्रत्यक्ष रूप से इस बिल का उद्देश्य वेतन सम्बन्धी निम्न चार केन्द्रीय श्रम क़ानूनों के प्रासंगिक प्रावधानों का एकीकरण व सरलीकरण करना है

(1) पेमेण्ट ऑफ़ वेजिस एक्ट, 1936, (2) मिनिमम वेजिस एक्ट, 1948, (3) पेमेण्ट ऑफ़ बोनस एक्ट, 1965, (4) इक्वल रेम्यूनरेशन एक्ट, 1976। ग़ौरतलब है कि प्रस्तावित संशोधन मज़दूर विरोधी हैं और मालिकों/प्रबन्धन के मुक़ाबले उनकी स्थिति को मज़बूती देने की जगह और कमज़ोर कर देते हैं। इसका विश्लेषण निम्नलिखित है।

रोज़गार सूची – इस कोड में एम्प्लॉयमेण्ट शेड्यूल को हटा दिया गया है जो श्रमिकों को कुशल, अर्ध-कुशल और अकुशल की श्रेणी में बाँटती थी। ये नियम उन मज़दूरों के लिए तो उपयोगी है जो लोग एम्प्लॉयमेण्ट शेड्यूल में नहीं है जैसे घरेलू मज़दूर (13 राज्यों को छोड़कर घरेलू मज़दूर शेड्यूल में नहीं आते, इसलिए न्यूनतम मज़दूरी दरें उन पर लागू नहीं होतीं)। परन्तु इसका दुष्प्रभाव कुशल और अर्ध-कुशल मज़दूरों पर होगा जो मालिक से अधिक वेतन प्राप्त करने योग्य हैं।

मज़दूरी तय करने के मापदण्ड – प्रस्तुत कोड में न्यूनतम मज़दूरी की दर समयानुसार (टाईम वर्क) और मात्रानुसार (पीस वर्क) तय होगी और वेतनकाल घण्टे, दिन या महीने के हिसाब से हो सकता है। मज़दूरी तय करने के लिए सरकार काम के लिए आवश्यक कौशल, कठिनाई, कार्यस्थल की दूरी और अन्य उपयुक्त पहलू ध्यान में रख सकती है। यह नियम खुलेआम सुप्रीम कोर्ट के न्यूनतम मज़दूरी सम्बन्धी फ़ैसलों की धज्जियाँ उड़ाता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कई बार दोहराया है कि न्यूनतम मज़दूरी मज़दूर की सभी आवश्यकताओं के हिसाब से तय होनी चाहिए। न केवल उसकी साधारण शारीरिक ज़रूरतों के आधार पर और न ही उत्पादन के आधार पर। इसके अनुसार न्यूनतम मज़दूरी तय करते समय आहार-पोषण, पहनने-रहने, इलाज का ख़र्च, पारिवारिक ख़र्च, शिक्षा, ईंधन, बिजली, त्योहारों और समारोहों के ख़र्च, बुढ़ापे और अन्य ख़र्चों का ध्यान रखा जाना चाहिए। 1992 के मज़दूर प्रतिनिधि सचिव बनाम रेप्ताकोस ब्रैट प्रबन्धन केस में सुप्रीम कोर्ट ने न्यूनतम मज़दूरी के लिए निम्न 6 मापदण्ड तय किये थे – (1) एक मज़दूर को 3 व्यक्तियों के उपभोग का पैसा मिले, (2) एक औसत भारतीय वयस्क के लिए न्यूनतम आहार आवश्यकता 2700 कैलोरी, (3) हर परिवार के लिए सालाना 72 यार्ड्स कपड़ा, (4) सरकारी औद्योगिक आवास योजना के अन्तर्गत प्रदान किये गये न्यूनतम क्षेत्र का किराया, (5) न्यूनतम मज़दूरी का 20% ईंधन, बिजली और अन्य ख़र्चों के लिए, (6) कुल न्यूनतम मज़दूरी में 25% बच्चों, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन (त्योहार, समारोह आदि), बुढ़ापे, शादी आदि के लिए। बिल में इन सब मापदण्डों को ख़त्म करने का प्रयास है। हालाँकि कोड के अनुच्छेद 7 (2) के अनुसार राज्यों को जीवनयापन में होने वाले ख़र्चे के हिसाब से समय-समय पर वेतन निश्चित करने का प्रावधान है लेकिन यह बहुत ही अस्पष्ट है और यहाँ तक कि अनिवार्य भी नहीं है।

काम करने के घण्टे और ओवरटाइम – प्रस्तुत कोड के अनुच्छेद 13 के अनुसार सरकार यह तय कर सकती है कि एक आम दिन में कुल कितने घण्टे काम होगा। लेकिन सरकार निम्न कर्मचारियों के लिए इस नियम को ताक पर भी रख सकती है –
  1. वे कर्मचारी जिन्हें किसी आपातकालीन काम में लगाया गया है जिसका पहले से अन्देशा न हो
  2. वे कर्मचारी जिनसे कोई ऐसा काम लिया जा रहा है जो मुख्य काम का पूरक है और आम कामकाज के दौरान नहीं हो सकता
  3. वे कर्मचारी जिनका रोज़गार अनिरन्तर है
  4. वे कर्मचारी जो ऐसे काम में लगे हैं जो तकनीकी कारणों से ड्यूटी ख़त्म होने से पहले ही करने हैं
  5. वे कर्मचारी जो ऐसा काम कर रहे हैं जो प्रकृति की अनियमितता पर निर्भर हैं
ये नियम पूरी तरह ओवरटाइम की वर्तमान व्यवस्था के खि़लाफ़ हैं जिसके अनुसार दिन में 9 घण्टे से ज़्यादा और हफ़्ते में 48 घण्टे से ज़्यादा काम करना ‘ओवरटाइम’ कहलाता है। ओवरटाइम की इस परिभाषा को ख़त्म करके एवं पूरक कार्य और अनिरन्तर काम के बहाने ये अनुच्छेद ओवरटाइम के लिए मिलने वाली अतिरिक्त मज़दूरी पर एक योजनाबद्ध हमला है।

मालिकों को बोनस से छुटकारा – 1965 के पेमेण्ट ऑफ़ बोनस एक्ट ने नयी कम्पनियों को बोनस न देने की छूट दी थी, लेकिन वर्तमान कोड नयी कम्पनी किसे कहा जा सकता है, इसे अस्पष्ट बनाकर पूरी तरह कम्पनियों को बोनस देने के नियम से छुटकारा दिलवाने के चक्कर में है। नयी कम्पनी की परिभाषा में अब किसी “फ़ैक्टरी का ट्रायल रन” और “किसी ख़ान की पूर्वेक्षण की अवस्था” भी जोड़ दी गयी है, जिन पर कोई समय का बन्धन भी नहीं है। पुरानी कम्पनियाँ भी ट्रायल रन व पूर्वेक्षण की अवस्था के नाम पर मज़दूरों को बोनस देने से बच सकती हैं।

इस कोड ने कम्पनियों की आज्ञा के बिना उनकी बैलेंस शीट तक उजागर करने पर सरकारी अधिकारियों पर यह तर्क देते हुए प्रतिबन्ध लगा दिया है कि कम्पनियों पर विश्वास करना चाहिए और उन्हें अपने हिसाब-किताब की प्रमाणिकता का कोई सबूत भी देने की ज़रूरत नहीं है। यूनियनों या मज़दूरों को अब मुनाफ़ों से सम्बन्धित किसी स्पष्टीकरण के लिए ट्रिब्यूनल या आरबीट्रेटर के पास जाना होगा, जो कि उपयुक्त लगने पर ही स्पष्टीकरण देने के लिए बाध्य होंगे।

वेतन में मनमानी कटौती – अनुच्छेद 18 मालिकों को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी मज़दूर के असन्तोषजनक काम के चलते या अपने “नुक़सान की पूर्ति” करने के लिए उसकी तनख़्वाह काट सकते हैं! क्योंकि तनख़्वाह काटने के लिए किसी भी प्रकार की औपचारिक प्रक्रिया की ज़रुरत ही नहीं रह जायेगी, मालिक इसका इस्तेमाल मनमाने ढंग से मज़दूरों को सज़ा देने के लिए करेंगे।

लिंग आधारित भेदभाव – प्रस्तुत कोड ने 1976 के इक्वल रेम्यूनरेशन एक्ट (बराबर वेतन अधिनियम) के उन प्रावधानों को ख़त्म कर दिया है जो महिलाओं के लिए रोज़गार पैदा करने के पक्ष में थे और लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव के खि़लाफ़ थे।

लेबर इंस्पेक्टर की जगह ‘फ़ैसिलिटेटर’ – प्रस्तुत कोड कमिश्नर और इंस्पेक्टर की जगह ‘फ़ैसिलिटेटर’ की बात करता है जो “कोड को लागू करने के लिए मालिकों और मज़दूरों को सुझाव देगा”। यह फ़ैसिलिटेटर राज्य सरकारों के नियमानुसार फ़ैक्टरियों का निरीक्षण करने के लिए भी जि़म्मेदार होते हैं। लेकिन प्रस्तुत कोड ऑनलाइन निरीक्षण पर ज़ोर देता है, जिससे अचानक किये जाने वाले शारीरिक निरीक्षण की प्रथा ख़त्म हो जायेगी। और तो और प्रस्तुत कोड इण्टरनेट द्वारा ‘सेल्फ़-सर्टिफि़केशन’ (आत्म-प्रमाणीकरण) का भी प्रावधान ले आया है।

ट्रेड-यूनियनों पर रोकटोक – यह बिल यूनियन की गतिि‍वधियों में मज़दूरों को शामिल होने पर सीधा प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास है। इसके तहत मज़दूरों की यूनियन की गतिविधियों में भागीदारी केवल चन्दे तक ही सीमित रह पायेगी।

मालिकों के खि़लाफ़ कार्यवाही पर रोकटोक – 1948 के ‘मिनिमम वेजिस एक्ट’ (न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम) के अनुसार न्यूनतम मज़दूरी न देने से मालिक को जेल हो सकती है। 1983 के संजीत रॉय बनाम राजस्थान सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला सुनाया था कि न्यूनतम मज़दूरी न देना बेगारी/ज़बरदस्ती काम लेने के बराबर है, जो पूरी तरह असंवैधानिक है। इसके विपरीत प्रस्तुत कोड वेतन और बोनस के सवाल को आपराधिक मामले के दायरे से सिविल मामले के दायरे में ले आया है। जो मालिक कोड का उल्लंघन करेगा, उसे कोड को मानने का एक और मौक़ा दिया जायेगा और सज़ा देने से पहले कोड न मानने के पीछे का कारण पूछा जायेगा। अपराधी द्वारा समझौते से निपटारा कर लेने पर उसके अपराधों को पूरी तरह माफ़ कर दिया जायेगा।

वेतन में संशोधन के लिए तय समयसीमा का ख़ात्मा – 1948 के मिनिमम वेजिस एक्ट के अनुसार ज़रुरत पड़ने पर न्यूनतम मज़दूरी में संशोधन होना चाहिए और यह संशोधन अधिकतम पाँच साल के भीतर हो जाना चाहिए। यह ट्रेड यूनियनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण प्रावधान है, क्योंकि इसी के दम पर वे प्रबन्धन से वार्ता करती हैं। लेकिन प्रस्तुत कोड में इस नियम पर भी हमला किया गया है। अनुच्छेद 8 के अनुसार – “उपयुक्त सरकार हर 5 साल बाद न्यूनतम मज़दूरी दर की समीक्षा या संशोधन करेगी”। समीक्षा का विकल्प लाकर 5 साल के अन्तराल में वेतन संशोधन की अनिवार्यता वाले प्रावधान को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया गया है।
प्रस्तुत कोड के ज़रिये लाये जा रहे संशोधन सीधे-सीधे मालिकों के पक्ष को और मज़बूती देते हैं और मज़दूरों के हक़ों की लम्बी लड़ाई को खारिज़ करते हैं।


*********

No comments:

Post a Comment

Estimates of Gross Domestic Product (GDP), Net Domestic Product (NDP) and National Income, measured as Net National Income (NNI)

Press Information Bureau  Government of India Ministry of Statistics & Programme Implementation 03-August-2017 Gross Domesti...